वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे वनचरें | पक्षीही सुस्वरें आळविती ||१||
येणें सुखें रुचे एकांताचा वास | नाहीं गुण दोष अंगा येत ||धृ||
आकाश मंडप पृथिवी आसन | रमे तेथें मन क्रीडा करुं ||३||
कंथाकमंडलू देहउपचारा | जाणवितो वारा अवसरु ||४||
हरिकथा भोजन परवडी विस्तार | करोनी प्रकार सेवूं रुची ||५||
तुका म्हणे होय मनासी संवाद | आपुलाची वाद आपणांसी ||६||
अभंग क्र.२३७६(शिरवळकर)
vriskhavalli valli vrukshavalli aamha soyare vanachare pakshi hi pakshihi susware aalaviti
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