आवाहन

Sunday, April 6, 2014


देव म्हणती रुक्मिणी।
हा एकची योगी देखिला नयनी।
हेचि ज्ञान संजिवनी।
जाण त्रैलोक्यासी॥
धन्य धन्य धरातळी।
जो याते दृष्टी न्याहाळी।
तो वाहात येईल टाळी।
वैकुंठ भुवनासी॥
जो करिल याची यात्रा।
जो तारील सकळ गोत्रा।
सकळही कुळे पवित्रा।
याचेनि दर्शने होती॥
अलंकापूरी हे शिवपिठ।
पुर्वी तेथे होते निळकंठ।
ब्रह्मादिकी तप वरिष्ठ।
तेथेचि पै केले॥
इंद्र येऊनिया भुमीसी।
याग संपादिले अहर्निषी।
इंद्रायणी इंदोरिसी।
पंचक्रोशी या पासुनी॥
तेथे त्रिवेणी गुप्त असे।
भैरवापासुनि भागिरथी वसे।
पूर्ववटि जे माया दिसे।
ते प्रत्यक्ष जाणा पार्वती॥
भोवती वनवल्ली वृक्षी।
तेथे देव येऊनी होती पक्षी।
हे असे नित्य साक्षी।
अस्थी नासती उदकी॥
पंढरीहुनी हे सोपे।
जनाची हरावया पापे।
कळिकाळ कोपलिया कोपे।
न चले अलंकापूरासी॥
ऐसे सांगता हरिसी।
प्रेम वोसंडले रुक्मिणीसी।
म्हणे धन्य धन्य तयाची कुशी।
ज्ञानदेव जन्मले॥
नामा म्हणे माझा स्वामी।
वसे संतसमागमी।
ऐसे सांगितले ग्रामी।
अलंकापूरीसी॥

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